ऐ निर्गुण ! सगुणोंके दाता !

         (तर्ज: सच्चे सेवक बनेंगे जब हम... )
ऐ निर्गुण ! सगुणोंके दाता ! अजब तेरी दुनियादारी ।
धर्म - धर्ममें, भेद मानकर, भजते तुझको नरनारी ।।टेक।।
भाषाभेख   जगतके  न्यारे ।
खानपान अरु पंथहि प्यारे ! ।
भिन्न-भिन्न जिव भावके सारे ।
तूही सबका दिलवर बनकर, नाच नचाता है भारी ।।१।।
एक जमाना कभी न   छाया ।
जब देखा तब नया दिखाया ।
वाहवा रे ! तेरी   यह   माया ।
कला रुप सौंदर्य बदलती, क्षण क्षणमें सृष्टी सारी ।।२।।
कर्म  कर्मसे   गुण   निपजावे ।
समय देख अधिकार मिटावे ।
कुदरतसे  सारा   कर   लावे ।
आज रंगावे रंगमहल और कल भिक्षाकी दे तारी ।।३।।
कभि तो क्रुर शूर कहलावे ।
कभी अहिंसा को जय पावे ।
उलटपलट कर राज चलावे ।
रहे न दोनों, मिटे आखरी, किसकी गावे बलिहारी ? ।।४।।
ऐ    मानव !   काहे   भरमाता ?
निश्चयसे प्रभु क्यों नहि गाता ?
जो यह खेल मेल दिखलाता ?
तुकड्यादास कहे जो समझे, वही मुक्ति का अधिकारी ।।५।।