क्यों! दिनपर दिन गिरता है, तू मानवधर्म गमाता है ।
( तर्ज : कौन रहेगा इस दुनिया में...)
क्यों! दिनपर दिन गिरता है, तू मानवधर्म गमाता है ।
अपनेको तो खोता है फिर, धूल मे देश मिलाता है ।।टेक।।
क्या तुमको है भीक लगी तो, कंकर डाल चना बेचे ।
चावल में रेती का चूरा, घी में चर्बी घुलाता है ।।1।।
दूध में पानी, काँफी में भूसा, गरम मसाला लीद भरा।
मनमाने पैसों को लूटे, किस लिये पाप जमाता है।।2।।
नेकी का पैसा मिलता फिर, क्यों कर रिश्वत खाता है।
गरीबों का खून चूस-चूस कर, जरा न कुछ शरमाता है।।3॥
जातपात का झूठ झमेला, डाल के नेतागिरी करे।
फना किया मानवता तूने, अभितक नहीं सम्हलाता है।।4।।
सरकारी नोकर होकर भी, चाय पानी को भीख मंगे।
किसान ने क्या करना है फिर, वह कैसे जी जाता है।।5।।
साधू होकर नीयत अपनी, धन जोबन में सदा रखे।
कहाँ रखेगा ईश्वर तुझको, जरा समझ नहीं पाता है।।6 ।।
सत्ता का उपयोग गलत ले, अन्याय नहीं दूर करें।
कैसीं प्रजा होगी फिर राजी, जरा न रखता नाता है।।7।।
याद है तुमको क्या यह बंदे ! समयही बदला ले लेगा।
स्वास निकलना भी मुस्किल फिर,गले सहीत घुट जाता है।।8।।
एक तो चंद्रनगर में घूसे, तू क्या नर्क से न्हाता है।
जागृत हो भारत के वासी, समय यही बतलाता है।।9॥
मत कर ऐसा काम, नामपर हराम का धब्बा बैठे!
तुकड्यादास कहे तुझपर ही, देश भी इज्जत पाता है 0।।10।।