आतमज्योत नियार । लागे नहीं !

(तर्ज : ऐसे दिवानेको देखा भैया...)
आतमज्योत नियार । लागे नहीं ! आतमज्योत नियार ।।टेक।।
नहीं सूरज और नहीं चांदनी, नहीं शशि -परिवार ।
नहीं बीज - बिजली चमकावे, नहींको नाहि अधार ।।१।।
नहीं अग्यानी नहीं है ग्यानी, ग्यान-अग्यान-नियार।
नहीं मनमाँही नहीं कुछ काही, काहीमें बीज अपार ।।२।।
नहीं है साँसा नहीं परकासा, नहीं शक्ती अंधार ।
नहीं कल्प-कल्पना समाधी,   नहीं    लांबी - गरदार ।।३।।
जीती नहीं और मरी नाही, जीत मरनसे न्यार।
सगुण नहीं निरगुण भी नाही, नाही    ध्यान - अधार ।।४।।
सहज समायी सबमें भाई ! पलक जरा उठ मार ।
सहजी सहजमें प्रगटे ज्योती, झिमजल  बूंद   उबार ।।५।।
कहता तुकड्या जान गुरुको, धरले पद-निरधार ।
दूईकी एकी    होवे  जब,    एकके     पार     अपार ।।६।।