उनकी गति अपरम्पार
(तर्ज : तुम दया करो रघुनाथजी . . )
उनकी गति अपरम्पार, जो अलमस्त कहानेवाले ।।टेक।।
नहीं साथ जगतका कीन्हा।
दुनियासे रहत नगीना।
निरखे निज ब्रह्म उबार, जो सुख दु:ख सहानेवाले ।।१।।
उन पाँच-पचीसों मारा ।
दस-छःका कीन्हा चुरा ।
तोड़ा दिल-दाग अंधारा, नित धुंद रहानेवाले ।।२।।
आसन कुदरतमें साधे ।
मन बुद्धी चितको बाँधे ।
विषयन को कीन्हे अंधे, निर्गुणमें नहानेवाले ।।३।।
नित अलख ज्योत जगवाया ।
अविगत में जाय समाया ।
दिलका सब भरम मिटाया, एकीको चहानेवाले ।।४।।
नहीं वाको दूजा कोई ।
कभि देव-भक्त नहीं दूई ।
आपहीमें आप समाई, तुकड्याको बहानेवाले ।।५।।