करो दया गुरु आडकोजी ! भव -भयहारी !

(तर्ज : बेउजर मस्त क्यों पडा.....)
करो दया गुरु आडकोजी ! भव - भयहारी ! ।
बरखेड में मुझको रखो, मै शरण तिहारी ।।टेक।।
ये काम - क्रोध - मद बहुत दुःख देते है ।
ये मायाप्रेम के साधक फँसवाते है ।।
दिलदार हो तुम तो, जाहीर नाम तुम्हारा ।
तोडो यह माया-फंदा, भय सब मेरा ।।
करो धूल चरण की, आज मुझें गिरिधारी !
                          बरखेड में मुझको०।।१।।
करो हुजूर मुझको, आडकुजी ! गुरुस्वामी ।
यह दुख सब मेरा, दूर करो निजधामी ।।
चैतन्य मिला दो, आस तेरे चरणनकी ।
नहि फिर जाऊँगा, मिटाओ भ्रमणा मनकी ।।
नहि सहती यह तो नरक - कुंडि दुखकारी ।
                             बरखेड में मुझको०।।२।।
प्रल्हाद के लिये त्वरित खम्भ में आया ।
ध्रुव बाल उठाकर अटल स्थान दिलाया ।।
मैं बालक अपराधी हूँ, पाप क्या किया ?
कबसे मैं पुकारूँ ? शेषशय्यापर सोया ?
सब भक्त उधारे, अहिल्या पग से तारी ।
                             बरखेड में मुझको०।।३।।
नहि ठावठिकाना मुझको, भटक रहा हूँ ।
क्या संचित था, आपके चरण पाया हूँ ।।
इन चरण-सहारे से जन बहू तरते हो ।
भक्तको उद्धरो, क्यों जी ! दूर करते हो !
हो पतित पावन जगदुद्धार मुरारी !
                             बरखेड में मुझको०।।४।।
नहि मालुम मुझको मालिकका हि ठिकाना ।
एक पलमें चला जाता हूँ, दो परवाना ।।
दो कुंजी मुझको, खोलूँ आज खजाना ।
दर्शन के लिए फिरता हूँ, पिलाओ पान्हा ।।
उस अजामेल को क्यों एक पल में तारी ?
                             बरखेड में मुझको०।।५।।
कहता है तुकड्यादास फकीर दिवाना ।
नही होना कुछभी मुझे, हृदय में आना ।।
दो मार्ग अभी हूँ खडा द्वारपर आके ।
मैं नाम जपूँ, है आस चरणकी ताके ।।
क्यों हट जाते हो वृत्ति चूराके सारी ?
                             बरखेड में मुझको०।।६।।