ए नाथ ! शरण हूँ तेरी,
(तर्ज : सखि पानिया भरन कैसा जाना... )
ए नाथ ! शरण हूँ तेरी, रखिये अब लाज हमारी ।।टेक।।
नहिं तुमबिन साथी मेरो, ये चोर विषय तन घेरो जी ।
अब आई बिपत्ति बड़ि भारी ।। रखिये०।।१।।
संगत संतनकी कीन्ही, नहिं आशा मनकी छीनी जी ।
भटकाना मनका जारी ।। रखिये ०।।२।।
पल पलमें दिल भटकावे, मुख नाम नहीं प्रभू ! आवे जी ।
मर्कटसम चंचलकारी ।। रखिये०।।३।।
अब साधन कौन समाऊँ, तुम्हें छोड़ कहाँपर जाऊँ जी ।
तुकडया तन आस उबारी ।। रखिये०।।४।।