उन्हींकि दुनिया बँधी हुई है
(तर्ज : सुनोरि आली गगनमहलसे...)
उन्हींकि दुनिया बँधी हुई है, जो देखकर भूलते नहीं है ।।टेक।।
कहीं तो देखा राजमहलको, कहीं तो तुंबडी खास सही है ।
कहीं तो बैठे है हाथि घोड़ा, कहीं जुती पगहुमें नहीं है ।।१।।
कहीं तो ज्ञानीमें ज्ञानचर्चा, कहीं तो शूरोंमे हाथ फर्चा ।
कहीं तो लडकोंके संग हर्षा, कहीं तो दीवाने नूरही है ।।२।।
कहीं तो बादलके साथ खेला, कहीं तो देखा पड़ा अकेला ।
कहीं तो प्यारेका भार झेला, कहीं बिगारीहि हो रही है ।।३।।
कहीं तो पीरोंके साथ डोले, कहीं तो हकके दिदार खोले ।
कहीं तो बैठे बने है भोले, जो मौज आई वही सही है ।।४।।
सभी में रहकर रहे नियारे, ये ख्याल जिनके बने हैं पूरे ।
वही खुदाके बने है प्यारे, कभू न हारे जीते नहीं है ।।५।।
हुशारसे भी हुशार वे है, यह पारसे भी वह पार वे है ।
यह दास तुकड्याका सार यों है, जहाँपे दुनियाहि है नहीं है ! ।।६।।