अहो गुरु ! कौन सु - मारग धरिये
(तर्ज : मोसम कौनन कुटिल खल कामी... )
अहो गुरु! कौन सु -मारग धरिये, भवजल पार उतरिये ।।टेक।।
चंचल मन रोका नहिं जावे, नितउत भटकत फिरिये ।
स्थीर जरा पलपरभी न ठहुरे, और और बल हरिये ।।१।।
योग जाप करनेको जावे, लोभ मदादिक भरिये ।
इंद्रिय-आशा-पाश न छूटे, भौर भौर कर फिरिये ।।२।।
परमार्थको साधन लाग्यो, स्वारथ आन बिचरिये ।
नीचऊँच दिल भाव बसत है, क्या कहाँ जाकर मरिये ? ।।३।।
तुम तो नाथ! दयाके सिंधू, तुमहीसे मन लरिये ।
तुकड्यादास बिना गुरु किरपा, कैसे अँधारी टरिये ? ।।४।।