क्या कहूँ ? कहा नहिं जावे
(तर्ज : गुजरान करो गरिबीमें बाबा !... )
क्या कहूँ ? कहा नहिं जावे । वह एक लहजमें पावेजी ।।टेक।।
देखे तो दिखने नहिं पावे, नहिं देखे हिलकावे ।
सहज रहूँ तो नूर बतावे, बादलसम घन छावेजी ।।१।।
किडी किडी किडि बजे अनाहद, जैसा नाद घुमावे ।
भोर गयी चिडियाँसम बोलत, मस्त नशा चढवावेजी ।।२।।
बहरेकोहि सुनने आवे, अंधेको दिख पावे ।
मूका मुखसे शब्द सुनावे, डूंडा तार बजावेजी ।।३।।
चाँद सुरज बिन गिरे उजाला, पंगू चाल बतावे ।
जिंदे है सो सुन्न पडत है, उलट खेल खिलवावेजी ।।४।।
झिलमिल झिलमिल पानी टपके, ब्रम्हकुंड भर पावे ।
अनुभवहीको अनुभवि जाने, दूजा मूँह छुपावेजी ।।५।।
ऐसे घरका भेद लिया, पर जिंदा क्या बतलावे ? ।
तुकड्यादास कहे नहिं यह तो, सद्गुरु खेल खिलावेजी ।।६।।
(-- ओंकारेश्वर)