कबहुँ न पार भये मेरि नैया
(तर्ज : सुभांन तेरी कुदरतकी है शान... )
कबहुँ न पार भये मेरि नैया ।।टेक।।
गादी गलिचा ठंडा होना, सोने नरम सुखैया ।।१।।
रात-दिवस धन -पैसोंमें मन, नहिं कभि नाम रिझैया ।।२।।
विषयरूप कालनसे घेरा, कैसे धरूं प्रभु पैया ।।३।।
भूला हूँ सुत-तिरिया संगसे, नरक-जगहमें रहिया ।।४।।
तुकड्यादास बिकट अब तरना, प्रभु है लाज रखैया ।।५।।