उठो खोलो नैना भैया ! जतनकर

(तर्ज: संगत संतनकी करले... )
उठो खोलो नैना भैया ! जतनकर नरतन जो पाया ।।टेक।।
लख चौच्यांसी घटके भीतर, खूब पडा था सोया ।
काम क्रोधने लूटा बंदे, घरकी गठडी खोया ।।१।।
अजब करामत है मायामों, सबको भूल गिराया ।
न्यारा न्यारा रंग बनाकर, बाजिगरी बनवाया ।।२।।
पुरब जनमकीं रही कमाई, फिर मानवतन पाई ।
अबतो नींद तजो मेरे भाई, भजलों दिलसे साँई ।।३।।
सत्‌संगतमें जाकर करले, अपनी खास कमाई ।
तुकड्यादास कहें प्रभु भजले, पुरी कमाई पाई ।।४।।