किसको सुने न आवे, भ्रम - भूलमें भुले है

(तर्ज: उँचा मकान तेरा... )
किसको सुने न आवे, भ्रम - भूलमें भुले है ।
माने न कोई सत्‌का, जम-ओर सब चले है ।।टेक।।
भव-जाल यह बिछाया, इसमें भराइ  जादू ।
मायाके खेल माँही, सब जीवभी  ढले    हैं ।।१।।
साधू सुना रहे है, जगको जगा रहे हैं ।
पर कौन मानता है ? मृगजलमें ये डुले   हैं ।।२।।
अपना किया भरनको, फिर दुःख-भोग पावे ।
लगता है दुःख जी को, तब भक्तिमें झुले है ।।३।।
तुकड्या कहे अनुभव, संतोंने ले लिये है ।
करके सुना रहे हैं, मानो,   भला    खुले   है ।।४।।