ओम जय सद्गुरु देवा !
(तर्ज : ओम जय जगदीश हरे..)
ओम जय सद्गुरु देवा !
आडकुजी स्वामी ! तुम सब -अंतरयामी ।
करुणा कर दासनपे, कर अपनो प्रेमी ।। ओम जय ।।टेक।।
सत्य बचन - अनुरागी, अनुभव के राजा ।
करुणा कर दासनपे, धर सिरपर पंजा ।।१।।
जन्म - मरणसे तारक, कौन दुजा हमको ?।
तोडो भव-भय दुखको, दूर करो जमको ।।२।।
भव-सागर तरना बिकटी, तुझ बिन कैसे जाऊँ ?।
कौन सहायक हमको ? गुरुपद अभिलाऊँ ।।३।।
ऋषिमुनि, ब्रह्म, सनातन, ध्यान धरत तेरो ।
उनको पार न पावे, सुख अपरंपारो ।।४।।
तुमही हो अवतार परम, भव -तारणके वाली ।
सब संकट हर करके, बैठे सुखशाली ।।५।।
देह बिदेह बनाकर, सुंदर रुप धरे ।
पदमें ध्वज- पद्मांकुश, देखे दुख वारे ।।६।।
नंग - निसंग, सुरंग, बने अंदर निजमें ।
देखेबिन दिख जावे, छाये हो सबमें ।।७।।
छोडदियो धनमान सकल, परिवारक सुख हारा ।
निर्भय अंत:करणसे, त्यागा परिवारा ।।८।।
कूल कसार असारनसे, तुम सारथको पाये ।
प्रगट भये बरखेडा, जग तारन आये ।।९।।
लीलाको छाकर अपनी, निजरूपता पाये ।
सबमें सबसरिसे हो, कित महिमा गायें? ।।१०।।
सबकी पद-अभिलासा, दरशन दिलवाये ।
कोटिन पाप कटाकर, तनको अजमाये ।।११।।
नेत्र सचेत विराग, न राग-भरम पावे ।
ग्यान-समुंदर भरकर, जगको बतलावे ।।१२।।
जो जाने जानतपन, उसिने सुख लीना ।
ब्रह्म निरंजन ध्याकर, निजको पहिचाना ।।१३।।
प्रगट भये जग -तारणको , गुण-अवगुण दूर छिये ।
कार्तिक शुद्ध पुनमको, निज रूप समवाये ।।१४।।
सद्गुरुकी महिमा जो, नित उठकर गावे ।
मोक्ष परमपद पाकर फेर जनम ना आवे ।।१५।।
धन्य गुरुपद तेरो, सबमें अधिकारी ।
दीननपे करुणा कर, भव हर भवहारी !।।१६।।
शांत करो मन मेरो, तुम्हरा अभिमाना ।
तुकड्या बालक पदमें निजके मिलवाना ।।१७।।