आरती तापीमैयाकी

(तर्ज: आरती जय जगदीश्वरकी )
आरती तापीमैयाकी । भक्तभोले-सुखदैयाकी ।।टेक।।
अजब है कुंड बना गहरा । भितरमों अखंड जलधारा ।।
जडाया घाट चहूँ फेरा । बीच बटवृक्ष दिखे सहरा ।।
(अंतरा) तापती  प्रगटे  मुलतापी । तराये दर्शनसे पापी ।।
खूब लखलूट, रामके घाट, भक्तके ठाट,
कटावे पाप स्मरैयाकी । चित्त-चेतन उजरैयाकी ।।१।।
किनारे खूब जडे मंदर । नगारे-भेर बजे अंदर ।।
भजन हररोज चले मनहर । अंग न्हाते कइ लाखों नर ।।
(अंतर)विप्र दो शाम खडे तपमें । लगे है कर्म -धर्म -जपमें ।
चढे खुब रंग, होय मन दंग, पलक कर संग,
झलक चमके चिलशैयाकी । भक्तजन-तीरतरैयाकी ।।२।।
कष्ट जब भये जीवनको । रिझाया ऋषियोंने तुमको ।।
सुनी जब पुकार दीननको । धीर तब दीन्हा भक्तनको ।।५।।
(अंतरा)फोरकर कई पंथरोंकी मार । सिखरके उपर उठायी धार ।
मिटायी प्यास, हटाकर त्रास, रहा निजबास,
खास जलरूप धरैया की । दोषदुख नाश करैया की ।।
गुप्त अरु प्रगट रुप लीन्हो । भावसम फल सबको दीन्हों ।।
योग-योगीके मन चीन्हो । तुम्ही मैया ! अनुभव दीन्‍हों ।।
(अंतरा)भली अचरजकी लहरें है । चमक में चमक रही छाये ।।
जपे जो नाम, सिध्द करि काम, देत सुख-धाम ,
प्रेम तुकड्याके लैयाकी । आसकी प्यास निभैया की ।।४।।