ऐ दीनबन्धो ! सुनो हमारी, किसानका कब भला करोंगे ?

(तर्ज: यहाँ वहाँ क्या कहाँ भी देखो...)

ऐ दीनबन्धो ! सुनो हमारी, किसानका कब भला करोंगे ? ।।टेक ॥
गुलामि में था वतन हमारा, तभीसे रोता किसान सारा।
अभी तो हालत बडी बुरी है, कभी इधर भी चला करोंगे ? ।। १॥
न बालबच्चोंको सौख्य उनके, बिमारियाँ रहति घेरि उनको । 
न धोति-साडी बदनपे अच्छी, कभी तो इनकी सला करोंगे ? ।। २॥
फसल न खेतीमें पूरि आती, उठाके ले चलते माल उनका।
तडपते दिलकेहि दिल बिचारे, इन्हें कहाँतक छला करोंगे ? ।। ३ ॥
टुटा है छप्पर, दिवार,खिडकी, सदाकि ठंडी औ धूप घरमें। 
न ओढ़ने और नहीं बिछाने, जरा कभी तो मिला करोंगे ? ।। ४ ॥ 
स्वराज्य तुमने दिलाया है पर, अभी न पहुँचा किसान के घर।
वह दास तुकड्या पुकारता क्या जले को फिरभी जला करोंगे ? ।। ५ ॥